महान व्यक्तित्व >> चाणक्य जीवन गाथा चाणक्य जीवन गाथाइजैन बी.
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अखंड भारत का स्वर्णिम स्वप्न...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
चाणक्य प्राचीन भारतीय राजनीतिक व सामाजिक मूल्यों के निर्विवाद मापदंड व
नीति निर्धारक स्वीकार किए गए हैं। वे प्रतीक हैं भारत की रचनात्मक बुद्धि
के। उनकी नीतियां एक आम आदमी के लिए मार्गदर्शक मानी गई हैं। वे प्रथम
व्यक्ति हैं जिन्होंने भारतीय राजनीति में कूटनीतिक जोड़-तोड़,
दांव-पेंचों की शतरंजी चालों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया।
चाणक्य भौतिक कूटनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक अर्थशास्त्री भी थे। उनके ग्रंथ अर्थशास्त्र में एक राज्य के आदर्श अर्थतंत्र की पूरी व्यवस्था का विस्तृत वर्णन है और उसी में राजशाही के संविधान की रूपरेखा भी है। शायद विश्व में चाणक्य का अर्शशास्त्र पहला विधि-विधान पूर्वक लिखा गया राज्य का संविधान है। उन्होंने संविधान लेखक रूप में स्वयं को कौटिल्य के रूप में प्रस्तुत किया।
उनकी चाणक्य नीति एक नागरिक के लिए आदर्श गाइड है। इसमें उन्होंने एक व्यक्ति के अपने हित के लिए क्या ठीक व लाभदायक है तथा एक हानिकारक व अनैतिक है, उसका विशद वर्णन सूत्रों के रूप में किया है। उनके सूत्र अथवा उपदेश सदाबहार हैं। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, वो और अधिक सामाजिक व सार्थक होते जा रहे हैं। जब चाणक्य सामने आए तब देश में राजनीति अर्थहीन थी, समाज दिशाहीन था, शोषण व उत्पीड़न का साम्राज्य था, हजारों टुकड़ों में बंटा देश तुच्छ बुद्धि शासकों के आपसी झगड़ों से त्रस्त था तथा एक आम नागरिक लाचार शिकार था। चाणक्य ने राजनीति को अर्थ दिया, कूटनीति का समावेश किया, दांव पेंच के गुर सिखाए, समाज को एक दिशा दिखाई व नागरिक को आचार संहिता दी। टुकड़ों में बंटे देश को एक विशाल सम्राज्य बनाया तथा सिकंदर के विश्व विजय के सपनों को भारत में ही दफना दिया और उन्होंने एक साधारण व्यक्ति को सड़क से उठाकर मगध सम्राट बनाकर देश की श्रीवृद्धि की।
बच्चों को सूझबूझ सिखाने व नैतिक शिक्षा देने के लिए पंचतंत्र की रचना की जो आगे जाकर विश्व साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गया व संसार के हर बच्चे का मार्गदर्शन करने लगा।
ऐसे प्रतिभाशाली थे चाणक्य। उनकी जीवन कथा स्वयं एक शिक्षाप्रद क्रमिक विकास की कहानी है। जिसे पढ़ना हर भारतीय का गौरव है।
चाणक्य भौतिक कूटनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक अर्थशास्त्री भी थे। उनके ग्रंथ अर्थशास्त्र में एक राज्य के आदर्श अर्थतंत्र की पूरी व्यवस्था का विस्तृत वर्णन है और उसी में राजशाही के संविधान की रूपरेखा भी है। शायद विश्व में चाणक्य का अर्शशास्त्र पहला विधि-विधान पूर्वक लिखा गया राज्य का संविधान है। उन्होंने संविधान लेखक रूप में स्वयं को कौटिल्य के रूप में प्रस्तुत किया।
उनकी चाणक्य नीति एक नागरिक के लिए आदर्श गाइड है। इसमें उन्होंने एक व्यक्ति के अपने हित के लिए क्या ठीक व लाभदायक है तथा एक हानिकारक व अनैतिक है, उसका विशद वर्णन सूत्रों के रूप में किया है। उनके सूत्र अथवा उपदेश सदाबहार हैं। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, वो और अधिक सामाजिक व सार्थक होते जा रहे हैं। जब चाणक्य सामने आए तब देश में राजनीति अर्थहीन थी, समाज दिशाहीन था, शोषण व उत्पीड़न का साम्राज्य था, हजारों टुकड़ों में बंटा देश तुच्छ बुद्धि शासकों के आपसी झगड़ों से त्रस्त था तथा एक आम नागरिक लाचार शिकार था। चाणक्य ने राजनीति को अर्थ दिया, कूटनीति का समावेश किया, दांव पेंच के गुर सिखाए, समाज को एक दिशा दिखाई व नागरिक को आचार संहिता दी। टुकड़ों में बंटे देश को एक विशाल सम्राज्य बनाया तथा सिकंदर के विश्व विजय के सपनों को भारत में ही दफना दिया और उन्होंने एक साधारण व्यक्ति को सड़क से उठाकर मगध सम्राट बनाकर देश की श्रीवृद्धि की।
बच्चों को सूझबूझ सिखाने व नैतिक शिक्षा देने के लिए पंचतंत्र की रचना की जो आगे जाकर विश्व साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गया व संसार के हर बच्चे का मार्गदर्शन करने लगा।
ऐसे प्रतिभाशाली थे चाणक्य। उनकी जीवन कथा स्वयं एक शिक्षाप्रद क्रमिक विकास की कहानी है। जिसे पढ़ना हर भारतीय का गौरव है।
-प्रकाशक
चाणक्य जीवन गाथा
चाणक्य ने ईसा से 300 वर्ष पूर्व ऋषि चणक के पुत्र के रूप में जन्म लिया।
वही उनके आरंभिक काल के गुरु थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चणक केवल
उनके गुरु थे। चणक के ही शिष्य होने के नाते उनका नाम चाणक्य पड़ा। उस समय
का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों ने प्राप्त सूचनाओं
के आधार पर अपनी-अपनी धारणाएं बनाई।
विद्यार्थी चाणक्य
परंतु यह सर्वसम्मत है कि चाणक्य की आरंभिक शिक्षा गुरु चणक द्वारा ही दी
गई। संस्कृत ज्ञान तथा वेद-पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन चाणक्य ने
उन्हीं के निर्देशन में किया। चाणक्य मेधावी छात्र थे। गुरु उनकी शिक्षा
ग्रहण करने की तीव्र क्षमता से अत्यंत प्रसन्न थे।
तब सभी सूचनाएं व विधाएं धर्मग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती थीं। अत: धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन शिक्षा प्राप्त का एकमात्र साधन था। चाणक्य ने किशोरावस्था में ही उन ग्रंथों का सारा ज्ञान ग्रहण कर लिया था। अब बारी उच्च शिक्षा की थी, जो उनमें मंथन व शोध की योग्यता पैदा करे जिससे वे अब तक प्राप्त ज्ञान को रचनात्मक रूप दे सकें व उसका विस्तार कर सकें।
उस काल में तक्षशिला एक विख्यात विश्व-विद्यालय था, जो सिंधु नदी के किनारे बसे नगर के रूप में था। विश्व विद्यालय में प्रख्यात विद्वान तथा विशेषज्ञ प्रोफेसरों के रूप में छात्रों को शिक्षा देते थे। तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर-दूर से राजकुमार, शाही परिवारों के पुत्र, ब्राह्मणों, विद्वानों, धनी लोगों तथा उच्च कुलों के बेटे आते थे।
तक्षशिला अब पाकिस्तान में है। पुरातत्व खुदाई में यूनिवर्सिटी का पूरा चित्र उभरकर सामने आया है। तक्षशिला में दस हजार छात्रों के आवास व पढ़ाई की सुविधाएँ थीं। अध्यापकों की संख्या का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। विश्वविद्यालय में आवास कक्ष, पढ़ाई के लिए क्लास रूम, हॉल और पुस्तकालय थे। तक्षशिला के अवशेषों को देखने के लिए आज प्रतिवर्ष हजारों टूरिस्ट, इतिहासकार तथा पुरातत्ववेत्ता आते हैं।
विश्वविद्यालय कई विषयों के पाठ्यक्रम उपलब्ध करता था जैसे भाषाएं, व्याकरण, दर्शनशास्त्र, चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, कृषि, भूविज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, समाज-शास्त्र, धर्म, तंत्र शास्त्र, मनोविज्ञान तथा योगविद्या आदि। विभिन्न विषयों पर शोध का भी प्रावधान था।
कोर्स 8 वर्ष तक की अवधि के होते थे। विशेष अध्ययन के अतिरिक्त वेद, तीरंदाजी, घुड़सवारी, हाथी का संधान व एक दर्जन से अधिक कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। तक्षशिला के स्नातकों का हर स्थान पर बड़ा आदर होता था।
यहां छात्र 15-16 वर्ष की अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने आते थे। स्वाभाविक रूप से चाणक्य को उच्च शिक्षा की चाह तक्षशिला ले आई। यहां भी चाणक्य ने पढ़ाई में विशेष योग्यता प्राप्त की। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि चाणक्य कुरूप थे व उनका रंग भी काला था। इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में केंद्रित किया। उन्हें रूप की कमी विद्वान बन कर पूरी करने की धुन सवार थी। फिर एकाकी छात्र और करता भी क्या ? एक काले, रुपहीन व निर्धन विद्यार्थी को मित्र बनाने में किसी दूसरे छात्र को रुचि भी नहीं थी।
पर दूसरे छात्रों को चाणक्य के विद्वत्ता के प्रमाण तो मिलते ही रहते थे। यह बात और थी कि वह राजे-महाराजाओं का काल था। सरस्वती पुत्र के गुणों को आदर देने की उदारता राजपुत्रों में नहीं थी।
एकाकी होकर एकाग्रता से चाणक्य ने अपने विषयों की खूब पढ़ाई की। धार्मिक ग्रंथों का फिर से मंथन करने की दृष्टि से अध्ययन किया। उन्होंने राजनीति, अर्थशास्त्र राज्य तथा सामाजिक विषयों पर उपलब्ध ग्रंथ स्वाध्याय के लिए पढ़े।
यह स्पष्ट हो गया था कि चाणक्य एक विद्वान बनने की राह पर थे, जो तक्षशिला विश्वविद्यालय द्वारा पैदा किया एक रत्न साबित होने वाला था।
तब सभी सूचनाएं व विधाएं धर्मग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती थीं। अत: धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन शिक्षा प्राप्त का एकमात्र साधन था। चाणक्य ने किशोरावस्था में ही उन ग्रंथों का सारा ज्ञान ग्रहण कर लिया था। अब बारी उच्च शिक्षा की थी, जो उनमें मंथन व शोध की योग्यता पैदा करे जिससे वे अब तक प्राप्त ज्ञान को रचनात्मक रूप दे सकें व उसका विस्तार कर सकें।
उस काल में तक्षशिला एक विख्यात विश्व-विद्यालय था, जो सिंधु नदी के किनारे बसे नगर के रूप में था। विश्व विद्यालय में प्रख्यात विद्वान तथा विशेषज्ञ प्रोफेसरों के रूप में छात्रों को शिक्षा देते थे। तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर-दूर से राजकुमार, शाही परिवारों के पुत्र, ब्राह्मणों, विद्वानों, धनी लोगों तथा उच्च कुलों के बेटे आते थे।
तक्षशिला अब पाकिस्तान में है। पुरातत्व खुदाई में यूनिवर्सिटी का पूरा चित्र उभरकर सामने आया है। तक्षशिला में दस हजार छात्रों के आवास व पढ़ाई की सुविधाएँ थीं। अध्यापकों की संख्या का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। विश्वविद्यालय में आवास कक्ष, पढ़ाई के लिए क्लास रूम, हॉल और पुस्तकालय थे। तक्षशिला के अवशेषों को देखने के लिए आज प्रतिवर्ष हजारों टूरिस्ट, इतिहासकार तथा पुरातत्ववेत्ता आते हैं।
विश्वविद्यालय कई विषयों के पाठ्यक्रम उपलब्ध करता था जैसे भाषाएं, व्याकरण, दर्शनशास्त्र, चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, कृषि, भूविज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, समाज-शास्त्र, धर्म, तंत्र शास्त्र, मनोविज्ञान तथा योगविद्या आदि। विभिन्न विषयों पर शोध का भी प्रावधान था।
कोर्स 8 वर्ष तक की अवधि के होते थे। विशेष अध्ययन के अतिरिक्त वेद, तीरंदाजी, घुड़सवारी, हाथी का संधान व एक दर्जन से अधिक कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। तक्षशिला के स्नातकों का हर स्थान पर बड़ा आदर होता था।
यहां छात्र 15-16 वर्ष की अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने आते थे। स्वाभाविक रूप से चाणक्य को उच्च शिक्षा की चाह तक्षशिला ले आई। यहां भी चाणक्य ने पढ़ाई में विशेष योग्यता प्राप्त की। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि चाणक्य कुरूप थे व उनका रंग भी काला था। इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में केंद्रित किया। उन्हें रूप की कमी विद्वान बन कर पूरी करने की धुन सवार थी। फिर एकाकी छात्र और करता भी क्या ? एक काले, रुपहीन व निर्धन विद्यार्थी को मित्र बनाने में किसी दूसरे छात्र को रुचि भी नहीं थी।
पर दूसरे छात्रों को चाणक्य के विद्वत्ता के प्रमाण तो मिलते ही रहते थे। यह बात और थी कि वह राजे-महाराजाओं का काल था। सरस्वती पुत्र के गुणों को आदर देने की उदारता राजपुत्रों में नहीं थी।
एकाकी होकर एकाग्रता से चाणक्य ने अपने विषयों की खूब पढ़ाई की। धार्मिक ग्रंथों का फिर से मंथन करने की दृष्टि से अध्ययन किया। उन्होंने राजनीति, अर्थशास्त्र राज्य तथा सामाजिक विषयों पर उपलब्ध ग्रंथ स्वाध्याय के लिए पढ़े।
यह स्पष्ट हो गया था कि चाणक्य एक विद्वान बनने की राह पर थे, जो तक्षशिला विश्वविद्यालय द्वारा पैदा किया एक रत्न साबित होने वाला था।
विश्लेषक चाणक्य
वह युग राजनीतिक उथल-पुथल का था। चारों ओर अराजकता फैली थी। लोगों का जीवन
असुरक्षित था। उन पर शोषण की मार पड़ती ही रहती थी।
शासक राजे निरंकुश थे, जो धनी वर्ग व जमींदारों के साथ मिलकर जनता पर अत्याचार करते व उनका खून चूसते थे। अधिकतर राजाओं के राज्यों में न कोई विधि-विधान था न प्रशासनिक व्यवस्था। अधिकारियों व उनके कारिंदों की मनमानी ही कानून था। गरीब लोग त्रस्त थे। चाणक्य स्वयं उसी निर्धन-असहाय वर्ग से थे। अत: राजनीतिक व सामाजिक दुर्दशा का विश्लेषण करना उनका स्वाभाव हो गया। चारों ओर घटती घटनाओं से भी वह शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
यही काल था जब सोचते-सोचते उनके मन में एक आदर्श राज्य, सुगठित व्यवस्था, नागरिक संहिता तथा अर्थतंत्र की परिकल्पनाएं जन्म लेने लगी थीं। उनके मस्तिष्क में लंबे समय तक वह परिकल्पनाएं पकती रही व परिष्कृत होती रहीं जिन्हें बाद में उन्होंने ग्रंथों के रूप में लिखा व अमर हो गए।
इतिहास करवट ले रहा था। यूनान के एक योद्धा विश्व विजय का सपना लेकर एक विशाल सेना के साथ पूर्व की ओर कूच कर चुका था। एशिया महाद्वीप के मध्य-पूर्वी देश उसके आक्रमणों की चपेट में आ गए थे। युद्ध की गरम हवाएं भारत की ओर पश्चिम से आ रही थीं। कई राज्य उजड़ रहे थे।
यूनान का वह दुर्दांत योद्धा था सिकंदर जो महान कहलाया। उसकी सेना विशाल थी और उस सेना की युद्ध पद्धति नवीन थी जो रूढ़िवादी भारतीय शासकों की समझ से परे थी। यूनानी सेना एक ज्योमितिक आकार में आगे बढ़ती थी। उनके सैनिक चमचमाते कवचों से सुरक्षित घोड़ों पर बैठे आक्रमण करते थे। पैदल सेना लंबे भालों से दूर से ही शत्रु को बींध कर गिरा देती थी। जिसका भारतीय व दूसरे देशों की सेनाओं के पास कोई उत्तर न था।
उजड़े लोग शरणार्थी बनकर पूर्व की ओर आ रहे थे। तक्षशिला में भी शरणार्थियों की भीड़ आ घुसी। विश्वविद्यालय परिसर भी शरणार्थियों से भर गया। जिस नगर में केवल शिक्षार्थी आते थे अब वहां रोटी-पानी व आश्रय मांगने वाले आ रहे थे।
समस्या से निपटने के लिए राजा ने अपने विशिष्ट व्यक्तियों की सभा बुलाई व समस्या का समाधान ढूंढ़ा। पड़ोसी राजा भी विचार-विमर्श करने आए। अंत में निर्णय यह लिया गया कि शरणार्थियों को नगर के बाहर एक भूमि में आश्रय दिया जाए। वे नगर में केवल परिचय पत्र दिखाकर ही आ सकते थे, परंतु विश्वविद्यालय परिसर में उनका प्रवेश वर्जित था।
इस प्रकार चाणक्य ने स्वयं देखा कि इस प्रकार की आपात स्थिति उत्पन्न होने पर कौन से कदम उठाए जाने चाहिए।
स्नातक बनने तक चाणक्य ने विद्यालय की शिक्षा के साथ-साथ स्वयं भी विश्लेषक के रूप में बहुत कुछ सीखा।
शासक राजे निरंकुश थे, जो धनी वर्ग व जमींदारों के साथ मिलकर जनता पर अत्याचार करते व उनका खून चूसते थे। अधिकतर राजाओं के राज्यों में न कोई विधि-विधान था न प्रशासनिक व्यवस्था। अधिकारियों व उनके कारिंदों की मनमानी ही कानून था। गरीब लोग त्रस्त थे। चाणक्य स्वयं उसी निर्धन-असहाय वर्ग से थे। अत: राजनीतिक व सामाजिक दुर्दशा का विश्लेषण करना उनका स्वाभाव हो गया। चारों ओर घटती घटनाओं से भी वह शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
यही काल था जब सोचते-सोचते उनके मन में एक आदर्श राज्य, सुगठित व्यवस्था, नागरिक संहिता तथा अर्थतंत्र की परिकल्पनाएं जन्म लेने लगी थीं। उनके मस्तिष्क में लंबे समय तक वह परिकल्पनाएं पकती रही व परिष्कृत होती रहीं जिन्हें बाद में उन्होंने ग्रंथों के रूप में लिखा व अमर हो गए।
इतिहास करवट ले रहा था। यूनान के एक योद्धा विश्व विजय का सपना लेकर एक विशाल सेना के साथ पूर्व की ओर कूच कर चुका था। एशिया महाद्वीप के मध्य-पूर्वी देश उसके आक्रमणों की चपेट में आ गए थे। युद्ध की गरम हवाएं भारत की ओर पश्चिम से आ रही थीं। कई राज्य उजड़ रहे थे।
यूनान का वह दुर्दांत योद्धा था सिकंदर जो महान कहलाया। उसकी सेना विशाल थी और उस सेना की युद्ध पद्धति नवीन थी जो रूढ़िवादी भारतीय शासकों की समझ से परे थी। यूनानी सेना एक ज्योमितिक आकार में आगे बढ़ती थी। उनके सैनिक चमचमाते कवचों से सुरक्षित घोड़ों पर बैठे आक्रमण करते थे। पैदल सेना लंबे भालों से दूर से ही शत्रु को बींध कर गिरा देती थी। जिसका भारतीय व दूसरे देशों की सेनाओं के पास कोई उत्तर न था।
उजड़े लोग शरणार्थी बनकर पूर्व की ओर आ रहे थे। तक्षशिला में भी शरणार्थियों की भीड़ आ घुसी। विश्वविद्यालय परिसर भी शरणार्थियों से भर गया। जिस नगर में केवल शिक्षार्थी आते थे अब वहां रोटी-पानी व आश्रय मांगने वाले आ रहे थे।
समस्या से निपटने के लिए राजा ने अपने विशिष्ट व्यक्तियों की सभा बुलाई व समस्या का समाधान ढूंढ़ा। पड़ोसी राजा भी विचार-विमर्श करने आए। अंत में निर्णय यह लिया गया कि शरणार्थियों को नगर के बाहर एक भूमि में आश्रय दिया जाए। वे नगर में केवल परिचय पत्र दिखाकर ही आ सकते थे, परंतु विश्वविद्यालय परिसर में उनका प्रवेश वर्जित था।
इस प्रकार चाणक्य ने स्वयं देखा कि इस प्रकार की आपात स्थिति उत्पन्न होने पर कौन से कदम उठाए जाने चाहिए।
स्नातक बनने तक चाणक्य ने विद्यालय की शिक्षा के साथ-साथ स्वयं भी विश्लेषक के रूप में बहुत कुछ सीखा।
प्राध्यापक चाणक्य
स्नातक बनने के बाद चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन
गए। एक प्राध्यापक के रूप में स्वीकार किए जाने में कोई अड़चन नहीं आई।
स्नातक बनने के अंतिम वर्ष आने तक चाणक्य की विद्वत्ता सब पर जाहिर हो गई थी। सभी अध्यापक तथा छात्र उनका लोहा मानने लग गए थे। अध्यापक तो उन्हें समकक्ष ही मानने लगे तथा छात्र अध्ययन या शोध में निस्संकोच चाणक्य की सहायता लेते थे।
प्राध्यापक के रूप में चाणक्य ने शीघ्र ही अपनी जगह बना ली तथा दूसरे प्राध्यापकों को अपना प्रशंसक बना लिया। विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों पर तो उनका अधिकार था ही, वहीं वे अन्य सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक विषयों के भी अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर अच्छे खासे विशेषज्ञ बन गए।
छात्र तो उनकी विद्वता पर मुग्ध थे ही। वे उनके ऐसे अनुयायी बन गए कि बाद में जब चाणक्य पूर्व की ओर प्रस्थान कर गए तो कई छात्र उनकी अध्यक्षता में काम करने वहां पहुंच गए तथा चाणक्य के अभियानों में महत्वपूर्ण रोल अदा किया। भद्रभट्ट व पुरुषदत्त उनमें प्रमुख हैं।
तक्षशिला अब तेजी से गरम हो रहा था। पश्चिम की ओर से युद्ध की झुलसाने वाली गरम हवाएं तूफानी अंदाज में आ रही थीं। यूनानी योद्धा सिकंदर के घोड़ों की टापें सुनाई देने लगी थीं। चाणक्य ने तक्षशिला छोड़ पूर्व की ओर कूच करने का मन बना लिया था। उनके दिमाग में बड़ी-बड़ी योजनाएं थीं एक आदर्श राज्य स्थापित करने की। उन योजनाओं को फलीभूत होने के लिए समय की दरकार थी पर तक्षशिला का तो अपना अंतिम समय आ गया था। यम द्वार पर दस्तक दे रहा था। वहां से खिसकने में ही भलाई थी।
चाणक्य ने सुदूर पूर्व की ओर का रुख किया। यहां मगध साम्राज्य था जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज का पटना) थी। वहां का मोह चाणक्य के लिए इसलिए था, कि पाटलीपुत्र के निकट ही उस समय का महान् विश्वविद्यालय नालंदा था, जो तक्षशिला से किसी सूरत कम नहीं था। 399 वर्ष ईसा पूर्व एक घुमंतू इतिहासकार फाहयान ने वहां की यात्रा की थी व पाटलिपुत्र के गुण गाए थे।
पाटलिपुत्र गंगा के किनारे बसा था। इतिहास के दौरों में उसके कई नाम रहे, पुष्पापुर, पुष्पनगर, पाटलिपुत्र और अब पटना है।
वहीं चाणक्य ने धरती के स्तर से कार्य करते-करते ऊपर उठने का मन बना लिया ताकि वह धरती से जुड़ी सच्चाइयों से भी व्यक्तिगत रूप से परिचित हो जाएं। अपनी तक्षशिला की स्नातकता व प्राध्यापकता का हवाला देने के बजाय एक शिक्षक की साधारण नौकरी स्वीकार कर ली।
मगध में धनानंद का भ्रष्ट राज्य था। राजा केवल कर लगाकर धन उगाना व अपना खजाना भरना जानता था। जनता दुखी थी। पर उसका मंत्री समझदार था। मंत्री अमात्य शकटार ने राजा को समझाया कि केवल लूट-खसोट से काम नहीं चलेगा। उन्हें कुछ धन लोक कल्याण तथा पुरस्कार रूप में बांटकर जनता का आक्रोश कम करना होगा। बात राजा की समझ में आ गई। उसने कलाकारों, विद्वानों तथा लोक कल्याण कार्यों के लिए अनुदान देने आरंभ किए।
इस बीच चाणक्य अपनी योग्यता से स्थानीय लोगों के दिल में घर कर चुके थे। सामाजिक कार्यों में भी उनकी रुचि थी। वे सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था सुधारना चाहते थे। उन्होंने प्रमुख लोगों को सुझाया कि राजा द्वारा दिए अनुदानों का दुरुपयोग हो रहा है क्योंकि उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। इसके सदुपयोग के लिए विद्वानों व प्रमुख व्यक्तियों की एक समिति होनी चाहिए।
बात सबको जंच गई। विद्वानों ने मिलकर एक संघ बनाया। चाणक्य को अध्यक्ष बनाने में किसी को भी आपत्ति नहीं हुई। कुछ अधिकारियों ने अनुदान की राशियां संघ को दीं। चाणक्य के निर्देशन में उनका अत्यंत रचनात्मक उपयोग हुआ, जिसकी सबने प्रशंसा की।
संघ के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया कि चाणक्य को स्वयं राजा धनानंद से मिलना चाहिए ताकि अधिक अनुदानों की व्यवस्था हो सके। उन्हें यह भी आशा थी कि राजा चाणक्य की योग्यताओं को देखते हुए उन्हें उचित दायित्व सौपेंगे। चाणक्य तैयार हो गए।
ऐसे समय में चाणक्य को आचार्य शकटार से मिलने का विचार आया। वे चाणक्य के सहपाठी व मित्र रह चुके थे। दोनों तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण कर चुके थे। शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् आचार्य शकटार पहले नंद साम्राज्य में मंत्री बने फिर महामंत्री। इसीलिए तो चाणक्य ने पहले निचले स्तर से कार्य शुरू कर अपनी योग्यता सिद्ध करने की कोशिश की थी। वे बहुत स्वाभिमानी थे। वे पहले ही शकटार से मिलते तो सभी को यह लगता कि चाणक्य अपने मित्र को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ गए और शायद उनकी योग्यता का सही मूल्यांकन न होता। परंतु अब मिलना आवश्यक था क्योंकि वे विदेशी आक्रमणकारी सिकंदर की चालों व खरतों से मगध सम्राट को सावधान करना चाहते थे।
एक संदेशवाहक के साथ चाणक्य ने पत्र भेजकर आचार्य शकटार से निजी रूप से मिलने की इच्छा जताई। शकटार को अपने पुराने सहपाठी की पाटलिपुत्र में उपस्थिति से प्रसन्नता हुई। वैसे संघ के कार्यों का ब्योरा पाकर उन्हें कुछ-कुछ अनुमान तो पहले ही हो गया था कि शायद उसका संचालन-अध्यक्ष चाणक्य उनका तक्षशिला शिक्षा प्राप्ति के दिनों का मित्र ही हो सकता है। वह यह भी जानते थे कि स्वाभिमानवश वह मित्र उनसे सहायता नहीं लेना चाहेगा। शकटार ने सहर्ष चाणक्य को अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया।
चाणक्य आए तो शकटार उनसे पुरानी आत्मीयता से मिले और भीतर ले जाकर आदरपूर्वक बिठाया। कुशलक्षेम के पश्चात् चाणक्य ने भारत के पश्चिमी भाग के राज्यों की दशा का वर्णन किया कि किन परिस्थितियों में उन्हें तक्षशिला छोड़कर पूर्व की ओर आना पड़ा। उन्होंने यूनानी आक्रमणकारी सिकंदर के अभियान के खतरों की चर्चा भी की।
शकटार ने पूछा, ‘‘जरा विस्तार से बताइए कि पश्चिमी भागों में क्या हुआ ? और यह सिकंदर क्या मुसीबत है ?’’
चाणक्य ने लंबी सांस लेकर उत्तर दिया, ‘‘अमात्य ! वही पुरानी कहानी बार-बार दोहराई जा रही है। हमारे शासक आपस के छोटे-छोटे कलहों में उलझे रहते हैं और विदेशी आक्रमणकारियों के लिए अपने द्वार खोल देते हैं। इस बार यह विदेशी आक्रमणकारी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। वह यूनान देश का महायोद्धा सम्राट है। जिसने विश्व विजय की ठान ली है और एक अति विशाल सेना लेकर उसी अभियान पर पूर्व की ओर कूच कर चुका है। उसके सैनिक नए प्रकार के कवचों व आयुधों से सज्जित हैं। उसकी सेना ज्यामितिक संरचनाबद्ध होकर वार करती है और युद्ध की ऐसी पद्धतियों का प्रयोग करती है जिनका हमारी सेनाओं को ज्ञान ही नहीं है। वह अपने सामने आने वाली सारी सेनाओ व राज्यों को रौंदता हुआ हमारी सीमा तक आ पहुंचा है। उसकी शक्ति के सामने पारस के महान साम्राज्य भी टिक नहीं पाए। मिस्र का पतन हो चुका। शकस्तान, कंधार और बखत्रिया ढह गए। हिंदुकुश पर्वत पार कर उसने हमारी भूमि पर अपना पैर रखा।’’
‘‘तो क्या सिकंदर ने तक्षशिला पर विजय प्राप्त कर ली ?’’ शकटार ने विस्मित और चिंतित स्वर में पूछा।
‘‘आचार्य ! आपको उस विद्यार्थी की याद है जिसका नाम आंबी था, जब हम तक्षशिला में विद्या ग्रहण कर रहे थे।’’
‘‘मुझे कुछ स्मरण नहीं है।’’ शकटार ने याद करने का प्रयत्न करते हुए कहा।
‘‘उसकी कहानी का सिकंदर के संदर्भ में बहुत महत्व है।’’ ऐसा कहकर चाणक्य ने शकटार को आंबी की कहानी सुनाई।
स्नातक बनने के अंतिम वर्ष आने तक चाणक्य की विद्वत्ता सब पर जाहिर हो गई थी। सभी अध्यापक तथा छात्र उनका लोहा मानने लग गए थे। अध्यापक तो उन्हें समकक्ष ही मानने लगे तथा छात्र अध्ययन या शोध में निस्संकोच चाणक्य की सहायता लेते थे।
प्राध्यापक के रूप में चाणक्य ने शीघ्र ही अपनी जगह बना ली तथा दूसरे प्राध्यापकों को अपना प्रशंसक बना लिया। विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों पर तो उनका अधिकार था ही, वहीं वे अन्य सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक विषयों के भी अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर अच्छे खासे विशेषज्ञ बन गए।
छात्र तो उनकी विद्वता पर मुग्ध थे ही। वे उनके ऐसे अनुयायी बन गए कि बाद में जब चाणक्य पूर्व की ओर प्रस्थान कर गए तो कई छात्र उनकी अध्यक्षता में काम करने वहां पहुंच गए तथा चाणक्य के अभियानों में महत्वपूर्ण रोल अदा किया। भद्रभट्ट व पुरुषदत्त उनमें प्रमुख हैं।
तक्षशिला अब तेजी से गरम हो रहा था। पश्चिम की ओर से युद्ध की झुलसाने वाली गरम हवाएं तूफानी अंदाज में आ रही थीं। यूनानी योद्धा सिकंदर के घोड़ों की टापें सुनाई देने लगी थीं। चाणक्य ने तक्षशिला छोड़ पूर्व की ओर कूच करने का मन बना लिया था। उनके दिमाग में बड़ी-बड़ी योजनाएं थीं एक आदर्श राज्य स्थापित करने की। उन योजनाओं को फलीभूत होने के लिए समय की दरकार थी पर तक्षशिला का तो अपना अंतिम समय आ गया था। यम द्वार पर दस्तक दे रहा था। वहां से खिसकने में ही भलाई थी।
चाणक्य ने सुदूर पूर्व की ओर का रुख किया। यहां मगध साम्राज्य था जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज का पटना) थी। वहां का मोह चाणक्य के लिए इसलिए था, कि पाटलीपुत्र के निकट ही उस समय का महान् विश्वविद्यालय नालंदा था, जो तक्षशिला से किसी सूरत कम नहीं था। 399 वर्ष ईसा पूर्व एक घुमंतू इतिहासकार फाहयान ने वहां की यात्रा की थी व पाटलिपुत्र के गुण गाए थे।
पाटलिपुत्र गंगा के किनारे बसा था। इतिहास के दौरों में उसके कई नाम रहे, पुष्पापुर, पुष्पनगर, पाटलिपुत्र और अब पटना है।
वहीं चाणक्य ने धरती के स्तर से कार्य करते-करते ऊपर उठने का मन बना लिया ताकि वह धरती से जुड़ी सच्चाइयों से भी व्यक्तिगत रूप से परिचित हो जाएं। अपनी तक्षशिला की स्नातकता व प्राध्यापकता का हवाला देने के बजाय एक शिक्षक की साधारण नौकरी स्वीकार कर ली।
मगध में धनानंद का भ्रष्ट राज्य था। राजा केवल कर लगाकर धन उगाना व अपना खजाना भरना जानता था। जनता दुखी थी। पर उसका मंत्री समझदार था। मंत्री अमात्य शकटार ने राजा को समझाया कि केवल लूट-खसोट से काम नहीं चलेगा। उन्हें कुछ धन लोक कल्याण तथा पुरस्कार रूप में बांटकर जनता का आक्रोश कम करना होगा। बात राजा की समझ में आ गई। उसने कलाकारों, विद्वानों तथा लोक कल्याण कार्यों के लिए अनुदान देने आरंभ किए।
इस बीच चाणक्य अपनी योग्यता से स्थानीय लोगों के दिल में घर कर चुके थे। सामाजिक कार्यों में भी उनकी रुचि थी। वे सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था सुधारना चाहते थे। उन्होंने प्रमुख लोगों को सुझाया कि राजा द्वारा दिए अनुदानों का दुरुपयोग हो रहा है क्योंकि उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। इसके सदुपयोग के लिए विद्वानों व प्रमुख व्यक्तियों की एक समिति होनी चाहिए।
बात सबको जंच गई। विद्वानों ने मिलकर एक संघ बनाया। चाणक्य को अध्यक्ष बनाने में किसी को भी आपत्ति नहीं हुई। कुछ अधिकारियों ने अनुदान की राशियां संघ को दीं। चाणक्य के निर्देशन में उनका अत्यंत रचनात्मक उपयोग हुआ, जिसकी सबने प्रशंसा की।
संघ के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया कि चाणक्य को स्वयं राजा धनानंद से मिलना चाहिए ताकि अधिक अनुदानों की व्यवस्था हो सके। उन्हें यह भी आशा थी कि राजा चाणक्य की योग्यताओं को देखते हुए उन्हें उचित दायित्व सौपेंगे। चाणक्य तैयार हो गए।
ऐसे समय में चाणक्य को आचार्य शकटार से मिलने का विचार आया। वे चाणक्य के सहपाठी व मित्र रह चुके थे। दोनों तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण कर चुके थे। शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् आचार्य शकटार पहले नंद साम्राज्य में मंत्री बने फिर महामंत्री। इसीलिए तो चाणक्य ने पहले निचले स्तर से कार्य शुरू कर अपनी योग्यता सिद्ध करने की कोशिश की थी। वे बहुत स्वाभिमानी थे। वे पहले ही शकटार से मिलते तो सभी को यह लगता कि चाणक्य अपने मित्र को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ गए और शायद उनकी योग्यता का सही मूल्यांकन न होता। परंतु अब मिलना आवश्यक था क्योंकि वे विदेशी आक्रमणकारी सिकंदर की चालों व खरतों से मगध सम्राट को सावधान करना चाहते थे।
एक संदेशवाहक के साथ चाणक्य ने पत्र भेजकर आचार्य शकटार से निजी रूप से मिलने की इच्छा जताई। शकटार को अपने पुराने सहपाठी की पाटलिपुत्र में उपस्थिति से प्रसन्नता हुई। वैसे संघ के कार्यों का ब्योरा पाकर उन्हें कुछ-कुछ अनुमान तो पहले ही हो गया था कि शायद उसका संचालन-अध्यक्ष चाणक्य उनका तक्षशिला शिक्षा प्राप्ति के दिनों का मित्र ही हो सकता है। वह यह भी जानते थे कि स्वाभिमानवश वह मित्र उनसे सहायता नहीं लेना चाहेगा। शकटार ने सहर्ष चाणक्य को अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया।
चाणक्य आए तो शकटार उनसे पुरानी आत्मीयता से मिले और भीतर ले जाकर आदरपूर्वक बिठाया। कुशलक्षेम के पश्चात् चाणक्य ने भारत के पश्चिमी भाग के राज्यों की दशा का वर्णन किया कि किन परिस्थितियों में उन्हें तक्षशिला छोड़कर पूर्व की ओर आना पड़ा। उन्होंने यूनानी आक्रमणकारी सिकंदर के अभियान के खतरों की चर्चा भी की।
शकटार ने पूछा, ‘‘जरा विस्तार से बताइए कि पश्चिमी भागों में क्या हुआ ? और यह सिकंदर क्या मुसीबत है ?’’
चाणक्य ने लंबी सांस लेकर उत्तर दिया, ‘‘अमात्य ! वही पुरानी कहानी बार-बार दोहराई जा रही है। हमारे शासक आपस के छोटे-छोटे कलहों में उलझे रहते हैं और विदेशी आक्रमणकारियों के लिए अपने द्वार खोल देते हैं। इस बार यह विदेशी आक्रमणकारी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। वह यूनान देश का महायोद्धा सम्राट है। जिसने विश्व विजय की ठान ली है और एक अति विशाल सेना लेकर उसी अभियान पर पूर्व की ओर कूच कर चुका है। उसके सैनिक नए प्रकार के कवचों व आयुधों से सज्जित हैं। उसकी सेना ज्यामितिक संरचनाबद्ध होकर वार करती है और युद्ध की ऐसी पद्धतियों का प्रयोग करती है जिनका हमारी सेनाओं को ज्ञान ही नहीं है। वह अपने सामने आने वाली सारी सेनाओ व राज्यों को रौंदता हुआ हमारी सीमा तक आ पहुंचा है। उसकी शक्ति के सामने पारस के महान साम्राज्य भी टिक नहीं पाए। मिस्र का पतन हो चुका। शकस्तान, कंधार और बखत्रिया ढह गए। हिंदुकुश पर्वत पार कर उसने हमारी भूमि पर अपना पैर रखा।’’
‘‘तो क्या सिकंदर ने तक्षशिला पर विजय प्राप्त कर ली ?’’ शकटार ने विस्मित और चिंतित स्वर में पूछा।
‘‘आचार्य ! आपको उस विद्यार्थी की याद है जिसका नाम आंबी था, जब हम तक्षशिला में विद्या ग्रहण कर रहे थे।’’
‘‘मुझे कुछ स्मरण नहीं है।’’ शकटार ने याद करने का प्रयत्न करते हुए कहा।
‘‘उसकी कहानी का सिकंदर के संदर्भ में बहुत महत्व है।’’ ऐसा कहकर चाणक्य ने शकटार को आंबी की कहानी सुनाई।
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